ङ्क्षजदगी का भाव वहां और भी खराब
सब बेकसूर हैं। कसूर तो शायद उन लोगों का हैं, जिन्हें मुफ्त में अपनी जान से हाथ धोना पड़ा और जो अस्पतालों में पड़े कराह रहे हैं। इलाज होता रहे, जांच चलती रह, घर उजड़ते रहें, वारंट निकलते रहे। किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। आजमाया हुआ नुस्खा हैं हमारे नेताओं, हमारी सरकार के पास, जो कभी बेअसर होता ही नहीं। निष्पक्ष जांच होगी, दोषियों को किसी कीमत पर बख्शा नहीं जाएगा। राजनीतिक साजिश है, विपक्ष की चाल है, शरारती तत्वों की पहचान की जा रही है, जो जल्दी ही पकड़ लिए जाएंगे..... वगैरह-वगैरह। मुजफ्फरनगर में दंगा हुआ, लोग मरे, जख्मी हुए, उजड़े। दो चार दिन होहल्ला हुआ, जुबानी जंग चली, मगर इस दुर्भाग्यपूर्ण हादसे से उन्हें रत्तीभर भी फर्क नहीं पड़ा, जो सियासी तवे पर रोटियां सेंक रहे हैं, चाहे वे किसी भी पार्टी के ही क्यों न हों। दंगा भड़का, सरकार मौन बनी रही, आपसी भाईचारा दुश्मनी में तब्दील होते देर नहीं लगी। 'इक जरा-सी बात पर बरसों के याराने गए, अपने-अपने जर्फ से कुछ लोग पहचाने गएÓ। मगर अब जिम्मेदार नेताओं ने अपने हाथ उठा दिए और साबित करने में जुट गए कि वे खुद बेकसूर है, उन्हें इस बात का गम नहीं कि एकता खंडित हो गई, लोग तबाह हो गए, उन्हें तो यहीं चिंता खाए जा रही है कि अगले चुनाव में कहीं नुकसान न उठाना पड़े। इसी जुगाड़ में संसद में सड़क तक सियासत दौड़ रही है। तो ठीक हैं आजम खां, अखिलेश, मुलायम और सपा, भाजपा, बसपा, कांग्रेस सभी बेकसूर, ये सभी निर्दोष, और दोषी को तो छोड़ेगी नहीं सरकार। चुन-चुन कर सजा दी जाएगी। बड़ा अजीब लगता है न जब हम आजादी के 66 साल बाद भी आगे बढऩे के बजाय पीछे लौट रहे हैं। वही पुरानी अंग्रेजों वाली तकनीक फूट डालो-राज करो। दूसरे को बर्बाद अपने को आबाद करो। सब कुछ गंदी राजनीति की बलि चढ़ जाता है, जनता हाथ मलती रह जाती हैं। तकलीफ तो यहीं है कि सरकार हकीकत जानते हुए भी हमेशा उससे दूर भागती है...। बहरहाल, हालात कुछ अच्छे नजर नहीं आ रहे। 'हालाते जिस्मे सूरत जां और भी खराब, चारों तरफ खराब, यहां और भी खराब। 'नजरों में आ रहे हैं, नजारे बहुत बुरे, होठों में आ रही हैं जुबां और भी खराब। सोचा तो उनके देश में महंगी है जिन्दगी पर जिन्दगी का भाव वहां और भी खराबÓ।
सब बेकसूर हैं। कसूर तो शायद उन लोगों का हैं, जिन्हें मुफ्त में अपनी जान से हाथ धोना पड़ा और जो अस्पतालों में पड़े कराह रहे हैं। इलाज होता रहे, जांच चलती रह, घर उजड़ते रहें, वारंट निकलते रहे। किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। आजमाया हुआ नुस्खा हैं हमारे नेताओं, हमारी सरकार के पास, जो कभी बेअसर होता ही नहीं। निष्पक्ष जांच होगी, दोषियों को किसी कीमत पर बख्शा नहीं जाएगा। राजनीतिक साजिश है, विपक्ष की चाल है, शरारती तत्वों की पहचान की जा रही है, जो जल्दी ही पकड़ लिए जाएंगे..... वगैरह-वगैरह। मुजफ्फरनगर में दंगा हुआ, लोग मरे, जख्मी हुए, उजड़े। दो चार दिन होहल्ला हुआ, जुबानी जंग चली, मगर इस दुर्भाग्यपूर्ण हादसे से उन्हें रत्तीभर भी फर्क नहीं पड़ा, जो सियासी तवे पर रोटियां सेंक रहे हैं, चाहे वे किसी भी पार्टी के ही क्यों न हों। दंगा भड़का, सरकार मौन बनी रही, आपसी भाईचारा दुश्मनी में तब्दील होते देर नहीं लगी। 'इक जरा-सी बात पर बरसों के याराने गए, अपने-अपने जर्फ से कुछ लोग पहचाने गएÓ। मगर अब जिम्मेदार नेताओं ने अपने हाथ उठा दिए और साबित करने में जुट गए कि वे खुद बेकसूर है, उन्हें इस बात का गम नहीं कि एकता खंडित हो गई, लोग तबाह हो गए, उन्हें तो यहीं चिंता खाए जा रही है कि अगले चुनाव में कहीं नुकसान न उठाना पड़े। इसी जुगाड़ में संसद में सड़क तक सियासत दौड़ रही है। तो ठीक हैं आजम खां, अखिलेश, मुलायम और सपा, भाजपा, बसपा, कांग्रेस सभी बेकसूर, ये सभी निर्दोष, और दोषी को तो छोड़ेगी नहीं सरकार। चुन-चुन कर सजा दी जाएगी। बड़ा अजीब लगता है न जब हम आजादी के 66 साल बाद भी आगे बढऩे के बजाय पीछे लौट रहे हैं। वही पुरानी अंग्रेजों वाली तकनीक फूट डालो-राज करो। दूसरे को बर्बाद अपने को आबाद करो। सब कुछ गंदी राजनीति की बलि चढ़ जाता है, जनता हाथ मलती रह जाती हैं। तकलीफ तो यहीं है कि सरकार हकीकत जानते हुए भी हमेशा उससे दूर भागती है...। बहरहाल, हालात कुछ अच्छे नजर नहीं आ रहे। 'हालाते जिस्मे सूरत जां और भी खराब, चारों तरफ खराब, यहां और भी खराब। 'नजरों में आ रहे हैं, नजारे बहुत बुरे, होठों में आ रही हैं जुबां और भी खराब। सोचा तो उनके देश में महंगी है जिन्दगी पर जिन्दगी का भाव वहां और भी खराबÓ।