Wednesday 18 September 2013

ङ्क्षजदगी का भाव वहां और भी खराब
सब बेकसूर हैं। कसूर तो शायद उन लोगों का हैं, जिन्हें मुफ्त में अपनी जान से हाथ धोना पड़ा और जो अस्पतालों में पड़े कराह रहे हैं। इलाज होता रहे, जांच चलती रह, घर उजड़ते रहें, वारंट निकलते रहे। किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। आजमाया हुआ नुस्खा हैं हमारे नेताओं, हमारी सरकार के पास, जो कभी बेअसर होता ही नहीं। निष्पक्ष जांच होगी, दोषियों को किसी कीमत पर बख्शा नहीं जाएगा। राजनीतिक साजिश है, विपक्ष की चाल है, शरारती तत्वों की पहचान की जा रही है, जो जल्दी ही पकड़ लिए जाएंगे..... वगैरह-वगैरह। मुजफ्फरनगर में दंगा हुआ, लोग मरे, जख्मी हुए, उजड़े। दो चार दिन होहल्ला हुआ, जुबानी जंग चली, मगर इस दुर्भाग्यपूर्ण हादसे से उन्हें रत्तीभर भी फर्क नहीं पड़ा, जो सियासी तवे पर रोटियां सेंक रहे हैं, चाहे वे किसी भी पार्टी के ही क्यों न हों। दंगा भड़का, सरकार मौन बनी रही, आपसी भाईचारा दुश्मनी में तब्दील होते देर नहीं लगी। 'इक जरा-सी बात पर बरसों के याराने गए, अपने-अपने जर्फ से कुछ लोग पहचाने गएÓ। मगर अब जिम्मेदार नेताओं ने अपने हाथ उठा दिए और साबित करने में जुट गए कि वे खुद बेकसूर है, उन्हें इस बात का गम नहीं कि एकता खंडित हो गई, लोग तबाह हो गए, उन्हें तो यहीं चिंता खाए जा रही है कि अगले चुनाव में कहीं नुकसान न उठाना पड़े। इसी जुगाड़ में संसद में सड़क तक सियासत दौड़ रही है। तो ठीक हैं आजम खां, अखिलेश, मुलायम और सपा, भाजपा, बसपा, कांग्रेस सभी बेकसूर, ये सभी निर्दोष, और दोषी को तो छोड़ेगी नहीं सरकार। चुन-चुन कर सजा दी जाएगी। बड़ा अजीब लगता है न जब हम आजादी के 66 साल बाद भी आगे बढऩे के बजाय पीछे लौट रहे हैं। वही पुरानी अंग्रेजों वाली तकनीक फूट डालो-राज करो। दूसरे को बर्बाद अपने को आबाद करो। सब कुछ गंदी राजनीति की बलि चढ़ जाता है, जनता हाथ मलती रह जाती हैं। तकलीफ तो यहीं है कि सरकार हकीकत जानते हुए भी हमेशा उससे दूर भागती है...। बहरहाल, हालात कुछ अच्छे नजर नहीं आ रहे। 'हालाते जिस्मे सूरत जां और भी खराब, चारों तरफ खराब, यहां और भी खराब। 'नजरों में आ रहे हैं, नजारे बहुत बुरे, होठों में आ रही हैं जुबां और भी खराब। सोचा तो उनके देश में महंगी है जिन्दगी पर जिन्दगी का भाव वहां और भी खराबÓ।

ङ्क्षजदगी का भाव वहां और भी खराब सब बेकसूर हैं। कसूर तो शायद उन लोगों का हैं, जिन्हें मुफ्त में अपनी जान से हाथ धोना पड़ा और जो अस्पतालों में पड़े कराह रहे हैं। इलाज होता रहे, जांच चलती रह, घर उजड़ते रहें, वारंट निकलते रहे। किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। आजमाया हुआ नुस्खा हैं हमारे नेताओं, हमारी सरकार के पास, जो कभी बेअसर होता ही नहीं। निष्पक्ष जांच होगी, दोषियों को किसी कीमत पर बख्शा नहीं जाएगा। राजनीतिक साजिश है, विपक्ष की चाल है, शरारती तत्वों की पहचान की जा रही है, जो जल्दी ही पकड़ लिए जाएंगे..... वगैरह-वगैरह। मुजफ्फरनगर में दंगा हुआ, लोग मरे, जख्मी हुए, उजड़े। दो चार दिन होहल्ला हुआ, जुबानी जंग चली, मगर इस दुर्भाग्यपूर्ण हादसे से उन्हें रत्तीभर भी फर्क नहीं पड़ा, जो सियासी तवे पर रोटियां सेंक रहे हैं, चाहे वे किसी भी पार्टी के ही क्यों न हों। दंगा भड़का, सरकार मौन बनी रही, आपसी भाईचारा दुश्मनी में तब्दील होते देर नहीं लगी। 'इक जरा-सी बात पर बरसों के याराने गए, अपने-अपने जर्फ से कुछ लोग पहचाने गएÓ। मगर अब जिम्मेदार नेताओं ने अपने हाथ उठा दिए और साबित करने में जुट गए कि वे खुद बेकसूर है, उन्हें इस बात का गम नहीं कि एकता खंडित हो गई, लोग तबाह हो गए, उन्हें तो यहीं चिंता खाए जा रही है कि अगले चुनाव में कहीं नुकसान न उठाना पड़े। इसी जुगाड़ में संसद में सड़क तक सियासत दौड़ रही है। तो ठीक हैं आजम खां, अखिलेश, मुलायम और सपा, भाजपा, बसपा, कांग्रेस सभी बेकसूर, ये सभी निर्दोष, और दोषी को तो छोड़ेगी नहीं सरकार। चुन-चुन कर सजा दी जाएगी। बड़ा अजीब लगता है न जब हम आजादी के 66 साल बाद भी आगे बढऩे के बजाय पीछे लौट रहे हैं। वही पुरानी अंग्रेजों वाली तकनीक फूट डालो-राज करो। दूसरे को बर्बाद अपने को आबाद करो। सब कुछ गंदी राजनीति की बलि चढ़ जाता है, जनता हाथ मलती रह जाती हैं। तकलीफ तो यहीं है कि सरकार हकीकत जानते हुए भी हमेशा उससे दूर भागती है...। बहरहाल, हालात कुछ अच्छे नजर नहीं आ रहे। 'हालाते जिस्मे सूरत जां और भी खराब, चारों तरफ खराब, यहां और भी खराब। 'नजरों में आ रहे हैं, नजारे बहुत बुरे, होठों में आ रही हैं जुबां और भी खराब। सोचा तो उनके देश में महंगी है जिन्दगी पर जिन्दगी का भाव वहां और भी खराबÓ।

ङ्क्षजदगी का भाव वहां और भी खराब 
सब बेकसूर हैं। कसूर तो शायद उन लोगों का हैं, जिन्हें मुफ्त में अपनी जान से हाथ धोना पड़ा और जो अस्पतालों में पड़े कराह रहे हैं। इलाज होता रहे, जांच चलती रह, घर उजड़ते रहें, वारंट निकलते रहे। किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। आजमाया हुआ नुस्खा हैं हमारे नेताओं, हमारी सरकार के पास, जो कभी बेअसर होता ही नहीं। निष्पक्ष जांच होगी, दोषियों को किसी कीमत पर बख्शा नहीं जाएगा। राजनीतिक साजिश है, विपक्ष की चाल है, शरारती तत्वों की पहचान की जा रही है, जो जल्दी ही पकड़ लिए जाएंगे..... वगैरह-वगैरह। मुजफ्फरनगर में दंगा हुआ, लोग मरे, जख्मी हुए, उजड़े। दो चार दिन होहल्ला हुआ, जुबानी जंग चली, मगर इस दुर्भाग्यपूर्ण हादसे से उन्हें रत्तीभर भी फर्क नहीं पड़ा, जो सियासी तवे पर रोटियां सेंक रहे हैं, चाहे वे किसी भी पार्टी के ही क्यों न हों। दंगा भड़का, सरकार मौन बनी रही, आपसी भाईचारा दुश्मनी में तब्दील होते देर नहीं लगी। 'इक जरा-सी बात पर बरसों के याराने गए, अपने-अपने जर्फ से कुछ लोग पहचाने गएÓ। मगर अब जिम्मेदार नेताओं ने अपने हाथ उठा दिए और साबित करने में जुट गए कि वे खुद बेकसूर है, उन्हें इस बात का गम नहीं कि एकता खंडित हो गई, लोग तबाह हो गए, उन्हें तो यहीं चिंता खाए जा रही है कि अगले चुनाव में कहीं नुकसान न उठाना पड़े। इसी जुगाड़ में संसद में सड़क तक सियासत दौड़ रही है। तो ठीक हैं आजम खां, अखिलेश, मुलायम और सपा, भाजपा, बसपा, कांग्रेस सभी बेकसूर, ये सभी निर्दोष, और दोषी को तो छोड़ेगी नहीं सरकार। चुन-चुन कर सजा दी जाएगी। बड़ा अजीब लगता है न जब हम आजादी के 66 साल बाद भी आगे बढऩे के बजाय पीछे लौट रहे हैं। वही पुरानी अंग्रेजों वाली तकनीक फूट डालो-राज करो। दूसरे को बर्बाद अपने को आबाद करो। सब कुछ गंदी राजनीति की बलि चढ़ जाता है, जनता हाथ मलती रह जाती हैं। तकलीफ तो यहीं है कि सरकार हकीकत जानते हुए भी हमेशा उससे दूर भागती है...। बहरहाल, हालात कुछ अच्छे नजर नहीं आ रहे। 'हालाते जिस्मे सूरत जां और भी खराब, चारों तरफ खराब, यहां और भी खराब। 'नजरों में आ रहे हैं, नजारे बहुत बुरे, होठों में आ रही हैं जुबां और भी खराब। सोचा तो उनके देश में महंगी है जिन्दगी पर जिन्दगी का भाव वहां और भी खराबÓ। 


Tuesday 17 September 2013

शून्य से शिखर तक

शून्य से शिखर तक...

दो नौजवान एक ही मुद्दे पर बड़ी देर से उलझे हुए थे, कोई हार मानने या अपनी बात का वजन कम करने को तैयार नहीं था। इक्कीसवीं सदी अपने अंतिम पड़ाव पर थी, लोग चांद पर अपने घर बनाने लगे थे। तब हमारा देश भी पीछे कैसे रहता। यहां के अनेक घरानों ने अंतरिक्ष से गुजरकर चंद्रमा पर प्लॉट काटने शुरू कर दिए। गोया कि मानव सभ्यता चन्द्रयुग में थी, तो ऐसे विकसित दौर में बहस चल रही थी। मुद्दा सनातन था 'महंगाईÓ और बात अटकी थी 'प्याजÓ पर। एक बंदे का कहना था मेरे पुरखे दोनों वक्त रोटी के साथ प्याज खाते थे। इतना ही नहीं, कभी-कभार तो प्याज की सब्जी तक बन जाया करती थी, लेकिन दूसरे बंदे को यह बात हजम नहीं हो पा रही थी। उसका मानना था कि हो सकता है 'प्याज युगÓ में हफ्ते में एकाध बार प्याज का अर्क सूंघने को मिल जाता हो। मगर यह तो मुश्किल ही नहीं एकदम नामुमकिन है कि कोई दोनों टाइम प्याज अपने खाने के साथ खाए। इतना ही नहीं, एक अन्य नौजवान ने बीच में बात काटते हुए साफ-साफ कहा कि हमारी तो गच्ची पर प्याज पड़ा सूखता रहता था,जब मर्जी हुई, सटक लिया। नौजवानों की उस महफिल में यह सुन सब भौचक्क रह गए। उन्हें सहसा विश्वास ही नहीं हो पा रहा था कि ऐसा कुछ हो सकता है। फिर एक बोला भैया इतनी भी मत फेंको, कुछ तो रहम करो। तो क्या वाकई ऐसा हो जाएगा जनजीवन की कई जरूरी चीजें आने वाले दौर में आम आदमी के लिए एकदम दुर्लभ हो जाएंगी। सच में यह सोचने वाली बात है। मौजूदा हालात को देखते हुए कुछ भी असंभव नहीं। बीच में कुछ दिन के लिए प्याज ने कुछ कृपा की थी। 30-40 रुपए किलो तक आ गया था। अलबत्ता कई जगह 60 रुपए किलो तक बिक रहा था, फिर भी मन मसोसकर लोग अपनी जेब कटवा रहे थे। 4 दिन पहले पेट्रोल के दाम बढ़े हैं और दूसरे दिन से प्याज का पारा चढ़ जाता है, वह कहता है - देखता हूं पेट्रोल का बच्चा कैसे आगे निकलता है। कमबख्त सेव टमाटर तक को तो मैं पीछे छोड़ चुका हूं, इस पेट्रोल की औकात ही क्या। बहरहाल, प्याज करीब-करीब पेट्रोल से आगे बढ़ गया। सरकार यह सब देख रही है बड़े प्रेम से, क्योंकि प्रधानमंत्री पहले ही कह चुके हैं कि महंगाई से अभी राहत मिलने वाली नहीं। सरकार न तो महंगाई पर लगाम लगा पा रही है और न मुनाफाखोरों की खबर ले पा रही। जाहिर है, सब कुछ सुनियोजित है। हालत यह है कि अगस्त में महंगाई दर बढ़कर 18.18 फीसदी पहुंच गई है, जबकि जुलाई में यह दर 11.91 फीसदी थी। नतीजे में अब थोक महंगाई दर छह महीने के सबसे ऊंचे पायदान पर है। कोई सोच भी सकता था कि एक दिन प्याज इस कदर रुलाएगा?
जब था दस पैसे किलो. 
इस सिलसिले में कोई भी जिम्मेदार हस्ती निश्चित तौर पर कुछ भी टिप्पणी करने, मतलब दाम कब घटेंगे, आखिर बढ़े तो बढ़े कैसे आदि सवालों से कतराते हैं। यहां तक कि कृषि मंत्री शरद पवार भी सचाई से मुंह मोड़ बेतुके बयान देते नजर आ रहे हैं। वे कहते हैं कि किसान जब फायदा उठा रहा है तो चिल्ला-चोट हो रही है। जब प्याज 10 पैसे किलो था और सड़ जाता था तब हंगामा नहीं होता था, मगर लोगों की तो यही सोच-सोचकर दिमाग की नसें जवाब देने लगी हैं कि आखिर... शून्य से शिखर तक पहुंचा कैसे यह निष्ठुर प्याज? कहां दो रुपए में पांच किलो और कहां 80 रुपए में एक किलो।





                                                                     भारत सक्सेना